Guru Brahma Guru Vishnu Sloka In Hindi

गुरु ब्रह्मा गुरु विष्णु श्लोक अर्थसहित हिंदी में – Guru Brahma Guru Vishnu Sloka In Hindi

Guru Brahma Guru Vishnu Sloka In Hindi:-जय गुरुदेव दोस्तों इस संसार में जन्म लेने के बाद हर किसी को मार्गदर्शन की आवश्कता होती है. क्योंकि अच्छा, बुरा, सही, गलत, सच झूट इसमे से किसी की भी चीज(शब्द) की समझ या ग्यान के साथ हम जन्म नहीं लेते .कोइ हमें इन सभी से अर्थात ग्यान से परिचत करवाता है. और उसे “गुरु” कहा जाता है. इस संसार में ईश्वर का भी सबसे पहला गुरु उसकी माँ होती है. क्योंकि वही हमें सबसे पहले ग्यान देती है. फिर हम जब बाहर जगत(संसार) के ग्यान प्राप्ति के काबिल हो जाते है. तब हमे एक सच्चे गुरु की तलाश होती है. जो हमे जीवन का हेतु समझाए. मार्ग दिखये की हम जीवन में किस लक्ष को पाने के लिए काबिल बने. वह “गुरु” ही है. जो हमे हमारे अन्दर छुपे हुनर(काबिलियत) से परिचत करते है. जब हमे हमरे सच्चे गुरु मिलते है. तब हमें सच्चा आत्मज्ञान प्राप्त होता है. हमारे जीवन का कल्याण होता है. इसी गुरु के गुना गन बखान करने के लिए Guru Brahma Guru Vishnu Sloka In Hindi इस ब्लॉग पोस्ट में आपको गुरु के विषय में संस्कृत से हिंदी में Guru Brahma Guru Vishnu Sloka बताये है.

गुरु ब्रह्मा गुरु विष्णु श्लोक हिंदी मै – Guru Brahma Guru Vishnu Sloka In Hindi

गुरुर्ब्रह्मा ग्रुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः। गुरुः साक्षात् परं ब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः॥
भावार्थ: गुरु ब्रह्मा है, गुरु विष्णु है, गुरु हि शंकर है; गुरु हि साक्षात् परब्रह्म(परमगुरु) है; उन सद्गुरु को प्रणाम.

धर्मज्ञो धर्मकर्ता च सदा धर्मपरायणः। तत्त्वेभ्यः सर्वशास्त्रार्थादेशको गुरुरुच्यते॥
भावार्थ: धर्म से पूरी तरह परिचित, धर्म अनुकूल आचरण करनेवाले, धर्मपरायण, और अखिल शास्त्रों में से तत्त्वों का आदेश करनेवाले गुरु कहे जाते हैं.

निवर्तयत्यन्यजनं प्रमादतः स्वयं च निष्पापपथे प्रवर्तते। गुणाति तत्त्वं हितमिच्छुरंगिनाम् शिवार्थिनां यः स गुरु र्निगद्यते॥
भावार्थ: जो दूसरों को भ्रमित होने से रोकते हैं, स्वयं पापरहित जीवन रास्ते से चलते हैं, हित और कुशल-क्षेम, की अभिलाषा रखनेवाले को तत्त्वबोध करते हैं, उन्हें गुरु कहते हैं.

नीचं शय्यासनं चास्य सर्वदा गुरुसंनिधौ। गुरोस्तु चक्षुर्विषये न यथेष्टासनो भवेत्॥
भावार्थ: गुरु के पास निरन्तर उनसे छोटे आसन पर ही बैठना चाहिए. जब भी गुरु का आगमन होता है, तब उनकी अनुमति बिना नहीं बैठना चहिये.

किमत्र बहुनोक्तेन शास्त्रकोटि शतेन च। दुर्लभा चित्त विश्रान्तिः विना गुरुकृपां परम्॥
भावार्थ: बहुत कहने से क्या? करोडों शास्त्रों से भी क्या? सच्ची मन की शांति , गुरुदेव के बिना मिलना सचमे असंभव है.

प्रेरकः सूचकश्वैव वाचको दर्शकस्तथा। शिक्षको बोधकश्चैव षडेते गुरवः स्मृताः॥
भावार्थ: प्रोत्साहन देनेवाले, सूचन देनेवाले, यथार्थ बतानेवाले, पंथ दिखानेवाले, शिक्षा देनेवाले, और ज्ञान(बोध) करानेवाले – यह सभी (गुण ) गुरु समान है.

गुकारस्त्वन्धकारस्तु रुकार स्तेज उच्यते। अन्धकार निरोधत्वात् गुरुरित्यभिधीयते॥
भावार्थ: ‘गु’कार याने अंधकार(तिमिर), और ‘रु’कार याने तेज; जो अंधकार का (ज्ञान का प्रकाश देकर) निरोध करता है, वह व्यक्ति को गुरु कहलाता है.

शरीरं चैव वाचं च बुद्धिन्द्रिय मनांसि च। नियम्य प्राञ्जलिः तिष्ठेत् वीक्षमाणो गुरोर्मुखम्॥
भावार्थ: शरीर, वाणी, बुद्धि, इंद्रिय और मन को संयम(नियंत्रण) में रखकर, हाथ जोडकर गुरु के सन्मुख देखना चाहिए.

विद्वत्त्वं दक्षता शीलं सङ्कान्तिरनुशीलनम्। शिक्षकस्य गुणाः सप्त सचेतस्त्वं प्रसन्नता॥
भावार्थ: विद्वता (पांडित्य), दक्षता(निपुणता), शील, संक्रांति, अनुशीलन, सचेतत्व, और प्रसन्नता ये सात शिक्षक के गुण हैं.

अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जन शलाकया। चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः॥
भावार्थ: जिसने ज्ञानांजनरुप शलाका से, अज्ञानरुप अंधकार से अंध हुए लोगों की आँखें खोली(सच से परिचित करवाया) ,एसे गुरु को प्रणाम.

गुरोर्यत्र परीवादो निंदा वापिप्रवर्तते। कर्णौ तत्र विधातव्यो गन्तव्यं वा ततोऽन्यतः॥
भावार्थ: जहाँ गुरु की निंदा(बुराई) होती है वहाँ उसका विरोध करना चाहिए. यदि यह शक्य न हो तो अपने कान बंद करके बैठना चाहिए. और यदि वह भी संभव नहीं हो. तो उस स्थान से तुरंत दुसरे स्थान पर जाकर बैठना चाहिये.

विनय फलं शुश्रूषा गुरुशुश्रूषाफलं श्रुत ज्ञानम्। ज्ञानस्य फलं विरतिः विरतिफलं चाश्रव निरोधः॥
भावार्थ: विनय का फल सेवा है, गुरुसेवा का फल ज्ञान है, ज्ञान का फल विरक्ति है, और विरक्ति का फल आश्रवनिरोध(मोक्ष) है.

यः समः सर्वभूतेषु विरागी गतमत्सरः। जितेन्द्रियः शुचिर्दक्षः सदाचार समन्वितः॥
भावार्थ: गुरु सभी प्राणियों के प्रति वीतराग(राग रहित) और मत्सर(ईर्ष्या) से रहित होते हैं. वह जितेन्द्रिय (आत्मवश) , पवित्र, दक्ष और सदाचारी होते हैं.

एकमप्यक्षरं यस्तु गुरुः शिष्ये निवेदयेत्। पृथिव्यां नास्ति तद् द्रव्यं यद्दत्वा ह्यनृणी भवेत्॥
भावार्थ: गुरु शिष्य को जो एखाद अक्षर भी कहे, तो उसके बदले में पृथ्वी का ऐसी कोई संपत्ति नहीं, जो देकर गुरु के ऋण में से मुक्त हो सकें.

बहवो गुरवो लोके शिष्य वित्तपहारकाः। क्वचितु तत्र दृश्यन्ते शिष्यचित्तापहारकाः॥
भावार्थ: जगत में अनेक गुरु शिष्य का वित्त(धन) हरण करनेवाले होते हैं; परंतु, शिष्य का चित्त हरण करनेवाले गुरु सम्भवतः हि दिखाई देते हैं.

सर्वाभिलाषिणः सर्वभोजिनः सपरिग्रहाः। अब्रह्मचारिणो मिथ्योपदेशा गुरवो न तु॥
भावार्थ: लालसा रखनेवाले, सब भोग करनेवाले, संग्रह (ढेर)करनेवाले, ब्रह्मचर्य का पालन न करनेवाले, और असत्य उपदेश करनेवाले, गुरु नहीं हो सकते.

दुग्धेन धेनुः कुसुमेन वल्ली शीलेन भार्या कमलेन तोयम्। गुरुं विना भाति न चैव शिष्यः शमेन विद्या नगरी जनेन॥
भावार्थ: जैसे दूध बिना गाय, फूल बिना बेली, शील(नैतिक आचरण) बिना भार्या(पत्नी), कमल बगैर जल, शम(दीया) बिना विद्या, और नागरिकों बिना नगर शोभा नहीं देते, वैसे हि गुरु बिना शिष्य शोभा नहीं देता ।

योगीन्द्रः श्रुतिपारगः समरसाम्भोधौ निमग्नः सदा शान्ति क्षान्ति नितान्त दान्ति निपुणो धर्मैक निष्ठारतः। शिष्याणां शुभचित्त शुद्धिजनकः संसर्ग मात्रेण यः सोऽन्यांस्तारयति स्वयं च तरति स्वार्थं विना सद्गुरुः॥

भावार्थ: योगीयों में उत्कृष्ट, श्रुतियों को समझा हुआ, (संसार/सृष्टि) सागर मं समरस हुआ, शांति-क्षमा-दमन ऐसे अद्वितीय गुणोंवाला, धर्म में समरूपी , अपने संसर्ग से शिष्यों के चित्त को पवित्र, निर्मल करनेवाले, ऐसे गुरुदेव, निःस्वार्थ सभी को तारते हैं, और स्वयं भी तर जाते हैं.

पूर्णे तटाके तृषितः सदैव भूतेऽपि गेहे क्षुधितः स मूढः। कल्पद्रुमे सत्यपि वै दरिद्रः गुर्वादियोगेऽपि हि यः प्रमादी॥

भावार्थ: जो इन्सान गुरु मिलने के बावजुद आचार से हीन रहता है. वह महामूर्ख पानी से भरे हुए. जलाशय के पास होते हुए भी प्यासा, घर में खाद्यान्न होते हुए भी भूखा, और कल्पवृक्ष के पास रहते हुए भी निर्धन है.

दृष्टान्तो नैव दृष्टस्त्रिभुवनजठरे सद्गुरोर्ज्ञानदातुः स्पर्शश्चेत्तत्र कलप्यः स नयति यदहो स्वहृतामश्मसारम्। न स्पर्शत्वं तथापि श्रितचरगुणयुगे सद्गुरुः स्वीयशिष्ये स्वीयं साम्यं विधते भवति निरुपमस्तेवालौकिकोऽपि॥

भावार्थ: तीनों लोक, स्वर्ग, पृथ्वी, पाताल में आत्मज्ञान देनेवाले गुरु के लिए कोई उपमा नहीं दिखाई देती. गुरु को पारसमणि के जैसा मानते है. तो वह ठीक नहीं है. कारण पारसमणि केवल लोहे को सोना बनाता है. पर स्वयं जैसा नहीं बनाता ! गुरु तो अपने चरणों का आश्रय लेनेवाले शिष्य को अपने जैसा बना देते है. इस लिए गुरुदेव के लिए कोई उपमा नहि है, गुरु तो अलौकिक (असाधारण) है.

||गुरु ईश्वर से भी पहले है||

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