danveer karn ki kahani

दानवीर कर्ण की कहानियां | Danveer Karn Ki Kahani

दानवीर कर्ण द्वापर युग में कौरव और पांडवों के बीच घटित महाभारत का सर्वश्रेष्ठ योद्धा था. उसके गुरु विष्णु अवतार भगवान परशुराम हुए थे. स्वयं परशुराम जी ने भी कर्ण की श्रेष्ठता को स्वीकार करते हुए.

उसे विजय धनुष देकर सम्मानित किया था. कर्ण को आज पूरा संसार एक श्रेष्ठ धनुर्धारी होने के साथ-साथ. एक श्रेष्ट दानवीर होने के लिए भी पहचानता है. उसके द्वार से कोई भी याचक खाली हाथ नहीं लौटता था.

कर्ण के दानवीरता का गुण गान तो स्वयं भगवान कृष्ण ने भी किया था. आज हम महान कर्ण की दानवीरता को साबित करने वाली. कहानियां देखने वाले हैं.

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दानवीर कर्ण और ब्राह्मण देवता | Danveer karn ki kahani

भगवान कृष्ण पांडवों के प्रिय मित्र थे. हमेशा उनका साथ देते थे. लेकिन दान पुण्य करने की जब बात होती थी. श्री कृष्ण केवल कर्ण को ही श्रेष्ट दानवीर कहते थे. यह बात अर्जुन को अच्छी नहीं लगती थी. एक दिन अर्जुन ने भगवान कृष्ण से पूछा.

हे वासुदेव दान पुण्य तो पांच पांडव भी करते है. लेकिन आप हमारी कभी प्रशंसा नहीं करते. आप तो केवल कर्ण को ही दानवीर कहते है. ऐसा क्यों? इस बात के प्रतिउत्तर में श्री हरि कृष्ण बोले.

हे पर्थ समय आने पर Karna की दानवीरता का प्रमाण तुम्हें मिल जाएगा. उसके कुछ महीनों बाद वर्षा ऋतु का आगमन हुआ था. चारों ओर मूसलाधार बारिश होने लगी थी. उस समय एक ब्राह्मण देवता पांडवों के महल में पधारे.

उन्होंने अर्जुन से कहा की उनकी धर्मपत्नी का स्वर्गवास हो गया है. इसलिए उसके अंतिम संस्कार हेतु. उन्हें चंदन की सूखी लकड़ियों का दान चाहिए. (danveer karn ki kahani)

अर्जुन ने मंत्री को बुलाया. और सुखी चंदन की लकड़ियों का प्रबंध करने का आदेश दिया. कुछ समय बाद लौटकर मंत्री ने बताया की हमारे कोषागार. तथा राज्य में अन्य कहीं पर भी. सुखी चंदन लकड़ी उपलब्ध नहीं है.

बारिश का मौसम होने के कारण. लकडहारों ने भी काफी दिनों से वन में कदम नहीं रखा है. मंत्री से पूरी बात सुनकर. अर्जुन ने ब्राह्मण देवता को चंदन की लकड़ियों की कमी के बारे में बताया.

ब्राह्मण और अर्जुन का संवाद. पास ही में बैठे भगवान गिरधर गोपाल कृष्ण गौर से सुन रहे थे. उन्होंने ब्राह्मण देवता को बताया. आपको इस समय चंदन की लकड़ियां.

केवल अंगदेश के राजा दानवीर कर्ण के पास ही मिल सकती है. भगवान कृष्ण ने अर्जुन को अपने साथ लिया. और दोनों भेस बदल कर ब्राह्मण के साथ. Danveer karna की सभा में पहुचें.

ब्राह्मण देवता ने उस सभा में. कर्ण को भी चंदन की सुखी लकड़ियों का दान माँगा. कर्ण ने अपने मंत्री को बुलाकर. उसका प्रबंध करने का आदेश दिया. लेकिन वहां पर भी चंदन की लकड़ियों का अकाल पड़ था.

बारिश की वजह से समूचे राज्य में सुखी चंदन की लकड़ी शेष नहीं थी. वह सुनने के बाद Danveer karna ने कुछ पल सोचकर. सिपाहियां को बुलाया और महल के एक कक्ष के चंदन की लकड़ियों के खंभे तोड़ दिए. और ब्राह्मण देवता को बहुत सारी सुखी चंदन की लकड़ियां उपलब्ध कराई.

यहां तक की उस ब्राह्मण को. उसके घर तक लड़कियों समेत पहुंचाने की व्यवस्था भी कर दी. यह दृश्य भेस बदले हुए. कृष्ण और अर्जुन भी देख रहे थे. उस दिन अर्जुन को karna के दानवीर होने का प्रमाण प्राप्त हुआ. तो यह थी Danveer karn ki kahani.

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दानवीर कर्ण का वचन | karn ki kahani

अंग देश का राजा बनने के पश्चात. दानवीर कर्ण ने समूचे राज्य में घोषणा करी. की प्रात काल सूर्य नारायण की पूजा के उपरांत. कोई भी उससे दान मांग सकता है. वह किसी भी प्रकार के दान के लिए. मना नहीं करेगा.

इस बात का लाभ महाभारत में दो व्यक्तियों ने उठाया था. स्वयं माता कुंती भी कर्ण की अलौकिकता एवं वीरता से परिचित थी. जब उनको यह ज्ञात हुआ. की महाभारत का विनाश कारी युद्ध होकर रहेगा.

तो वह उस युद्ध के परिणाम सोचकर बेहद परेशान हो उठी थी. क्योंकि उस युद्ध में दानवीर कर्ण सहित. माता कुंती के अन्य पांच पुत्र. आपस में द्वंद करने वाले थे. वह भाइयों के बीच युद्ध होनेवाले युद्ध को टालना चाहती थी. karn ki kahani

इसलिए कुंती जी सुबह-सुबह अपने त्यागे हुए. पुत्र दानवीर कर्ण से मिलने के लिए. गंगा के तट पर जाती है. और karna की सूर्यपूजा होने के बाद उससे मिलती है.

माता कुंती कर्ण को सत्य से अवगत कराती है. की वह भी अन्य पांच पांडवों की भांति कुंती पुत्र है. अर्थात कुंती ही कर्ण की जन्म दात्री माता है. माँ कुंती कर्ण से कहती है. वह पांडवों के पक्ष में रहकर युद्ध करें.

युद्ध में विजय के बाद कर्ण ही राजसिंहासन पर बैठेगा. पांच पांडव उसकी सेवा में निरंतर रहेंगे. दानवीर Karna ने अपनी माता के शब्द सुनकर. प्रति उत्तर में कहा. हे माता मैं दुर्योधन का साथ कभी नहीं छोड़ नहीं सकता.

क्योंकि मै उसका ऋणी हूँ. पूरा संसार जब मुझे सूतपुत्र कहकर. मेरा उपहास कर रहा था. तब दुर्योधन ने ही मुझे अपना मित्र कहा था. लेकिन हे माता मैं आपको वचन देता हूं.

महाभारत के युद्ध में मैं अर्जुन के अतिरिक्त. अन्य किसी भी पांडव को नहीं मारूंगा. अंत में माता कुंती से danveer karna ने निवेदन किया. की वह उसके जन्म का रहस्य किसी को भी नहीं बताएं.

दानवीर कर्ण और इंद्र देव भेट | karna kavach kundal daan

दानवीर कर्ण के पास जब तक दिव्य कवच और कुंडल है. तब तक उसे परास्त करना लगभग नामुमकिन होगा. अर्जुन की इस शंका से देवराज इंद्र अच्छी तरह परिचित थे.

वह अपने पुत्र अर्जुन की सहायता करना चाहते थे. इंद्रदेव कर्ण के बारे में ये भी जानते थे. की कर्ण एक दानवीर है और उससे दान में मांगी गई किसी भी चीज के लिए.

वह कभी ना नहीं कहेगा. इसी बात का लाभ उठाने के हेतु. इंद्रदेव प्रातःकाल दानवीर कर्ण की सूर्य उपासना के बाद. उसके समक्ष एक ब्राह्मण का वेश धरकर पहुंचे. और कर्ण से उसके कवच और कुंडल दान में मांग लिए.

Danveer karna ने एक पल का भी विलंब ना करते हुए.

अपने शरीर से कवच और कुंडल काट कर उन्हें दे दिए. लेकिन भेस बदल कर आए हुए. इंद्रदेव को कर्ण ने पहचान लिया था. क्योंकि उसके पिता सूर्य देव ने पहले से ही. उसे बता दिया था. इंद्रदेव कर्ण से कवच कुंडल मांगने जरूर आएंगे.

यह सब पता होते हुए भी. कर्ण अपने कवच कुंडल दान करने से पीछे नहीं हटा. कर्ण की दानवीरता देख. इंद्रदेव अति प्रसन्न हुए. और उन्होंने कर्ण को अपना एक अस्त्र दिया. जिसका इस्तेमाल युद्ध में केवल एक बार ही हो सकता था.

दानवीर कर्ण और कृष्ण संवाद | danveer karn ki kahani

महाभारत के युद्ध को टालने हेतु. एक अंतिम प्रयास करने के लिए. भगवान श्री कृष्ण महाराज धृतराष्ट्र की सभा में पहुंचे थे. वहां पर पूरी राज्यसभा के समक्ष. उन्होंने पांडवों की ओर से शांति प्रस्ताव रखा.

वह प्रस्ताव दुर्योधन को कदापि मान्य नहीं था. सभा से बाहर आने बाद नारायण कृष्ण दुर्योधन के सर्वश्रेष्ठ योद्धा दानवीर कर्ण से अकेले में मिले. उन्होंने karna को उसके जीवन का सत्य बताया. की वह पांच पांडवों का बड़ा भाई है.

अर्थात पांडवों की माँ ही. उसे जन्म देने वाली जननी है. यह सुनने के बाद कुछ समय के लिए. कर्ण भावुक हुआ. श्री कृष्ण ने उसे समझाया की वह पांडवों में ज्येष्ठ है.

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अगर कर्ण पांडवों तरफ से हस्तिनापुर के विरुद्ध युद्ध करता है. तो जीतने के उपरांत वह भारत वर्ष का चक्रवर्ती सम्राट बनेगा. धर्मराज युधिष्ठिर अपने भाइयों के साथ. उसकी सेवा में सदैव उपस्थित रहेंगे.

इन सभी बातों के लिए. भगवान कृष्ण ने कर्ण को आश्वस्त किया. लेकिन कर्ण ने पांडवों के पक्ष से लड़ने का प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया. दानवीर कर्ण ने कहा कि वह जनता है.

दुर्योधन का पक्ष अधर्म का पक्ष है. परंतु दुर्योधन उसका  घनिष्ट मित्र है. उसके जीवन में दुर्योधन ही एक मात्र ऐसा मनुष्य है. जिसने कर्ण को सम्मान दिया है. अन्य सभी ने तो अपमान ही किया है.

आगे दानवीर कर्ण कहता है. अब वह दुर्योधन की कृतज्ञता का ऋण चुकाना चाहता है. इसलिए वह अपनी अंतिम सांस तक उसके लिए लड़ेगा. कर्ण के दृढ़ निश्चय को स्वीकार करते हुए.

भगवान कृष्ण ने दानवीर कर्ण की निष्ठा और सच्ची मित्रता की प्रशंसा की. अंत में कर्ण ने भगवान श्री कृष्ण से कहा. हे वासुदेव में युद्ध का परिणाम जानता हूँ.

पांडव आपकी छत्रछाया में है. और आप सदैव धर्म के पक्ष में ही रहते है. इसलिए पांडवों की  विजय निश्चित है.

अंत में दानवीर कर्ण ने भगवान से यह वचन लिया. की वह कर्ण की मृत्यु से पहले. उसके जन्म का भेद पांडवों को नहीं बताएंगे.

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